बात बाक़ी है, पर रात निकल चुकी है।
चंद मीठी लम्हों में क्या क्या गुज़र चुकी है।
मोह के नशे में न जाने कितनी बार गिर पड़ा मैं -पर
वह मुझको अपनी नाज़ुक बाहों में संभल चुकी है।
उसकी निगाहें शबनमी से भरे थे ज़रूर - मगर
उसकी रूह की गर्मी में मेरी जी पिघल चुकी है।
अपनी पहाड़ों के सीने को क्यूँ जला दिया मैं
नफरत तो मोहब्बत के इक फूल से टल चुकी है।
सेज सूनी थी, सूरज की किरणें निकलने पर
अब फिर रात ढली, तो दिल बहल चुकी है।
वह एक ही रात में इंतज़ार-ए-जज़्बात को थाम ली
हाँ उसकी निगाह-ए-शौक़ काफी बदल चुकी है।
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