अब, और एक रात, वही ग़म , वही खामोशी।
अपने ही मन के अंदर मैं हूँ एक ख़ानाबदोशी।
तेरे सिवा और कुछ सोच नहीं पा रहा हूँ सनम
इस रिश्ते को क्या नाम दूँ ,प्यार, या बेहोशी।
इतना सन्नाटा है , कि मेरा कान फट रहा हैं
इस जंग-ए-वफ़ा में बन रहा हूँ सरफ़रोशी।
हमारा अफसाना-ए-प्यार गूंज रहा था अक़्सर
वही कहानी बनी गयी है जुदा की सरग़ोशी।
और जाम भर दे साक़ी, रात अब भी जवान है
ग़मों को मिटा दें, तेरी हाथ की यह मदहोशी।
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