न था अस्तित्व, न अनस्तित्व का लेश,
न आकाश था, न वायु का परिवेश।
किसने ढका था? किसकी थी शरण?
कहाँ था जल का अथाह गहन?
न मृत्यु थी, न अमरता का वास,
न दिन था, न रात का आभास।
एक तत्व श्वासहीन स्वयंभू,
उससे परे न कुछ और वस्तु।
आदि में तम से तम आच्छादित,
सब कुछ था जल में अप्रकाशित।
शून्य से वह एक उत्पन्न हुआ,
तप की महिमा से संजीवित हुआ।
काम ही था जो पहले उपजा,
मन का प्रथम बीज वही रचा।
सत्-असत् का बंधन ढूँढ़ा ज्ञानी,
हृदय में खोजा, बुद्धि से जानी।
फैली किरणें तिरछी सारी,
ऊपर क्या था, नीचे क्या भारी?
बीजधारी शक्तियाँ महान,
नीचे सामर्थ्य, ऊपर उत्थान।
कौन जाने, कौन कह सकता?
कहाँ से आई यह विश्व-रचना?
देव भी तो पीछे आए हैं,
कौन जाने कैसे बन पाए हैं?
यह सृष्टि कहाँ से उपजी है?
रची गई या स्वयं बनी है?
जो इसका स्वामी स्वर्ग में विराजे,
वही जाने, या वह भी न जाने।
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