काश मैं पवन बन पाता — निशब्द, निश्छल, निराकार,
तेरे अंगों से गुजरता, जैसे मंत्र से होकर गुजरता हो सार।
तेरी केश-रेखाओं में बिखरता चन्द्रिका सा शांत,
तेरी त्वचा से छूकर लौटता, पावन, विमल, प्रांत।
तेरी गंध में रम जाता, जैसे वंशी में राग,
ना मेरा कोई ठिकाना, ना कोई विराम का भाग।
तेरी उपस्थिति ही मेरी गति, मेरी दिशा, मेरा स्वर,
ना वाणी, ना देह, सिर्फ़ स्पंदन का निर्झर।
मैं ना प्रेम माँगता, ना आलिंगन का प्रण,
बस बहता रहूँ तुझमें, तुझमें हो मेरा क्षरण।
अगर कोई अर्थ है अस्तित्व का, तो बस यही हो,
"मनन" का सबकुछ तुझमें बुझे — तू ही उसका वही हो।
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