Sunday, April 28, 2013

पूर्णिमा

पूर्णिमा की एक रात हमारी मुलाक़ात की मुकुट बनी
नदी के किनारे तेरे साथ रातों की रात ज़रूर बनी।

सन्नाटे के चद्धर में छुपे थे, चांदनी की नज़र न लगे हमें
एकांत में हम डूबे थे संसार की पुकारें न सताए हमें।

तुम्हारी आन से रात कि कलि भी शर्मा गयी थी
तुम्हारी चलने से हवा कि लहर भी थम गयी थी।

साँसों को अपनी खुशबूओं से भरने का वादा की थी
तेरी रंगों से मेरी दिल को सजाने की वादा की थी ।

एक ही बार मिली थी इसी नदी के किनारे पर
फिर छोडकर चली गयी, मुझे शोक के साहिल पर।

यार की मेहँदी भरी हातें फिर मुझे चाहिए
बस बिछडा हुआ प्यार फिर  मुझे चाहिए।

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आँखों को कहने दो

दरिया-ए-जज़बात  दिल में और थोड़ा बहने दो  मुंह जो बात कह ना सके, आँखों को कहने दो।  अब उसको घर की किराय पूरा बच जायेगी  मेरी आँखों में समा गयी...